Thursday, February 28, 2008

उपन्यास अंश



नरसू की टुकुन कथा
श्रीमती पुष्पा तिवारी के ताज़ा उपन्यास का एक अंश



नाचते नाचते थक गया हूँ. पैर हैं कि फिर भी मन में थिरकते ही रहते हैं. स्टेशन दर स्टेशन गाड़ियाँ बदलते जीवन भी कितना थक गया है और मन भी. मेरे पैर नाचते हुए लेकिन कभी नहीं थके. नाचने से मैं अभी भी नहीं थकता, लेकिन वह उत्साह नहीं है. मेरा वक्त मुझमें ही बदल गया है. मैं कहाँ हूँ? क्या सोच कर इस शहर में आया था और कहाँ पहुँचा? पहुँच पाया भी कि नहीं? नहीं मालूम! उम्र के कितने बरस बीत गए हैं शायद पैंसठ या एक दो साल ज्यादा ही. कभी फुरसत नहीं मिली कुछ भी सोचने की. मेरी वही एक जिद सदैव रही है और उतने ही अनुपात में जुनून. उसने मुझे और किसी काम के लिए अवसर ही नहीं दिया. आखिर मैंने एक सयि जीवन अपनी तरह से बिता ही दिया. अब सोचने का यह समय है कि बच्चे वयस्क हो गए हैं लेकिन सोच तो वे रहे हैं. उनके सामने पूरा जीवन पडा है. हमने उन्हें यह अधिकार दिया हो, न दिया हो.. उन्होंने छीन लिया है. हमारा भविष्य भी अब वही सोच रहे हैं.

''पापा छोड़ो, अब यह नाचना गाना. बहुत हो गया. मेरी नौकरी लग गई है. अब आपको कमाने की भी कोई जरूरत नहीं. अब हम इस शहर में रहेंगे भी नहीं. चले जाएँगे अपने शहर अपने गांव. और कितना नाचोगे?''

नर्मदा के किनारे बैठा नरसू अपने प्र6नों से उलझ रहा है. शाम के सूरज की आखिरी किरण के आसमान में डूबने का इंतजार करता. देख रहा है चट्टानों से गिरते कितने प्रपातों को और यह सामने धुऑंधार विश्वप्रसिद्ध. उसमें भी खुद ऐसे प्रपात हहरा रहे हैं. वह अपने ही मन के प्रपात में पानी की बूँद की तरह गिर उड रहा है. उसे अपने पिता याद आ रहे हैं. वे उससे काली मिर्च के अपने व्यवसाय का उत्तराधिकारी बनने की उम्मीद रखते थे. काली मिर्च की मुओठी प्रतीक थी उसके पिता के व्यवसाय की जिससे उनका घर चलता था. व्यवसाय से मिलने वाला रुपया घर के लिए रोटी लाता था. रोटी जो जीवन के लिये साँस और पानी के बाद सबसे जरूरी होता है. पिता ने भी आखिरकार अपना कारोबार और लक्ष्य छोड़ दिया था. सोने की काली मिर्चों वाली वह मुओठी तिरुपति की हुण्डी को समर्पित कर दी थी. प्रभु के चरणों में सब कुछ समर्पित कर दिया था. जीवन का यही अर्थ है...

क्या वैसे ही उसने भी रेवा में काँपते हाथों से आज अपने घुँघरुओं को नहीं बहा दिया है?

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रेवा तट पर अपने डूबते घुँघरुओं को देख कर वह खुद एक प्रश्नचिन्ह की नृत्य मुद्रा में ख़डा है. वह अपने अब तक के जीवन का हिसाब किताब कर रहा है. क्या खोया क्या पाया. सोच रहा है पुरुष नर्तक बनकर उसने समाज को क्या दिया. महत्वाकांक्षी रहा वह आकांक्षा विहीन होकर सोच रहा है... हाथों की मुट्ठियों से झरती रेत की तरह मन की बँधी मुट्ठियों से विचार झर रहे हैं.

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कामायनी नृत्य नाटिका मंचित करने के लिए पहली बार उसने प्रसाद को पढा था. राव साहब से इसके अर्थ समझे थे. तब कहां पता था कि मेकलसुता के किनारे एक दिन वह पुरुष उसे ही बनना पडेगा. वही तो इसका निर्देशक भी था. आखिरी बार मंचित कामायनी में मुख्य भूमिका भी उसने ही की थी. कैसे हिमालय पर्वत पर एक धोती पहने धूनी रमाई थी और ऑंखें शायद इसी तरह का कोई दृश्य वास्तव में देख रही थीं. तब कहां पता था कि नृत्यनाटक का वह रिहर्सल ही उसके जीवन का फाइनल शो बन जाएगा.

नरसू के जीवन का सूरज तो मंगलोर में उगा था. वर्षों की यायावरी के बाद भारत के हृदय मध्यप्रदेश के हृदय स्थल जबलपुर में आकर वह बस गया था. बच्चे फिर ले जाना चाहते हैं उसे उगते सूरज के उस गाँवज़हाँ उसे अपने डूबने की प्रतीक्षा करनी होगी. ज़हाँ से जाकर एक दिन पिताजी ने तिरुपति की हुंडी में छोड़ दिया था अपना व्यापार, काम धंधा, यहां तक कि जीवन की गति. गतिहीन होकर ही तो बैठे रहे थे वे... अंत तक गधी पर. गधी पर आने वाला हर व्यापारी पिता को छोड़ उनके भाई और बेटों की तरफ मुखातिब होकर व्यापार की कोड भाषा में बातें करता, सौदे करता. पिता टुकुर टुकुर उन्हें देखते हुए कुछ न समझने की मुद्रा जबरिया ओढ़े रहते. उनकी ऑंखें केवल देखतीं नहीं सुनतीं भी. सौदे कम ज्यादा होते वे कहीं अपने परिवार की गिनती लगाते... बडा सामने बैठा है. मझला ससुराल में बस गयाबडी बेटी को घर देकर इसी शहर में बसा लिया. संझला नहीं अभी उसके बारे में नहीं, उसे बहुत समय चाहिए. यहाँ गधी में नहीं. चेहरे के भाव से लोगों को पता चल जायेगा और इतने वर्षों की तपस्या धूल में मिल जायेगी. उसका नाम कभी लेने या पूछने पर तटस्थ मुद्रा ही रहती है उनकी. हाँ अभी छोटा बच गया है अपने बाल बच्चों के साथ. वही बाहर आता जाता रहता है. सुबह दिखता है तो शाम गायब. शाम दिखता है तो सुबह गायब. न आने का ठिकाना न जाने का. लेकिन थैली तो वही लाता है मेरे लिए. अब मुझे इन रुपयों की जरूरत नहीं. नाती, पोते बहुत हैं. बच्चों ने स्नेह का भरपूर खजाना दिया है. बच्चे, निश्छल प्यारे.. लेकिन कितना पहचानते हैं, समझते हैं दुनिया को...

घुंघरुओं को विसर्जित करते ही नरसू का तन मुक्त हो गया. लेकिन मन वह कभी मुक्त होता है भला? मन पर बोझ रहा है पिछले पन्द्रह दिनों से... ज़ब बेटे ने यह घोषणा कर दी थी, ''पापा बस बहुत हो चुका नाचना, गाना. अपनी उम्र देखिए और अब हमारा भी ख्याल रखना चाहिए आपको.'' ये बातें उस समय तो कील की तरह चुभी थीं. जैसे उसका जीवन माँग लिया गया हो. जिस बेटे को इतना पढाया लिखाया. अब जो एक विदेशी कम्पनी में एक अच्छे ओहदे पर है. क्या उस पर विश्वास करते हुए इतना सा त्याग एक पिता को नहीं करना चाहिए? दिन रात इस प्रश्न से जूझते नरसू को चैन नहीं है. पत्नी से भी एक बार आंखों ही आंखों में उत्तर पूछा था. आंखों की भाषा में संवाद करने की महारत दोनों को हासिल है. सारी जिन्दगी भावनाओं को प्रकट करने का यही अनोखा तरीका उनका साथ देता रहा है. पत्नी निष्पक्ष होकर भी अपने पति को दुखी नहीं देखना चाहती. इसलिए वह उत्तर भी नहीं देना चाहती. उसे लगा यही बेटा खुद कितने पुरस्कार नृत्य के लिए ले चुका है. वे कभी 'नाचना' शब्द का इस्तेमाल नहीं करतीं. डांस कहने से वह कला को अभिजात्य दे देतीं. वे मानती हैं कि पुरुष का नर्तक होना कोई सामान्य बात नहीं है. फिर बकौल उनके 'सर' कोई ऐसे वैसे डांसर तो हैं नहीं, क्लासिकल डांसर हैं. गर्व से कहती हैं कि दक्षिण भारतीय होकर भी हिन्दी के एक से एक बडे कवि की किताबों के चरित्रों को कैसे उन्होंने जीवन्त बनाया है. पति के आज और बेटे के भविष्य में द्वन्द्व है. पत्नी पति पर गर्व करती रही है. बच्चों को भी अपने पिता पर गर्व रहा है. बेटा पिता की बहुत इज्जत करता है. खुद भी नृत्य करता रहा है बल्कि स्कूल की पढाई खत्म होते तक तो पिता के डांस ग्रुप में सहभागी बना रहा. लेकिन बाहर पढने क्या गया, वह सहसा बडा हो गया. पिता की छत्र छाया में उसका नजरिया कला के लिए पिता के जैसा था. बाहर की दुनिया का रहन और चलन उसे बिलकुल बदल गये.

''मेरे पिता डांसर हैं'' और फिर देखी उसने सहपाठियों की दबी मुस्कराहटें. उन सबका उसे छोड़ इधर उधर हो जाना. यही सब तो उसे सिखा गया नये तर्क और विद्रोह के तेवर.

बेटे ने नौकरी मिलते ही आदेश पारित कर दिया. जीवन से समझौता अब तक उसकी मजबूरी रही थी.

नरसू को शाम के धुंधलके में झिलमिलाती यादें दीख रही हैं...तालियों से गूँजता हॉल, लाइट्स, सर्च लाइट, खुद के ऊपर बार बार आता फोकस पीछे की तरफ किए दोनों हाथों में धागे से बंधे खुलते हुए मोरपंख़एक पैर अंदर की ओर मुड़ा और दूसरा धरती परचौंक उठे... ज़ैसे मोर ने अपने पैर देख लिए हों जो अवसाद का समानार्थी हो. अवसाद आज उसमें नदी की तरह बह रहा है.

एक एक पत्थर पर पैर रखते, उसकी नोक से बचने की कोशिश करते, जल की असंख्य धाराओं से बचते, कूदते नरसू का शरीर जैसे नृत्य की वापसी का नृत्य कर रहा है. वह नदी पार कर रहा है. उधाम नर्मदा के किनारे किनारे विपरीत दिशा में समानान्तर चलता नरसू का अवसाद!

Monday, February 25, 2008

पुष्पा तिवारी का नया उपन्यास

नरसू की टुकुन कथा

श्रीमती पुष्पा तिवारी का तीसरा उपन्यास नरसू की टुकुन कथा देश भर की पुस्तक दुकानों में उपलब्ध है.
एक नृत्य गुरु के जीवन को केंद्र में रख कर रचे गए इस उपन्यास का विमोचन हाल ही में जबलपुर में सुप्रसिद्ध कथाकार और पहल के संपादक ज्ञानरंजन के हाथो हुआ.
पुस्तक के प्रकाशक हैं मेधा प्रकाशन.
आप पढ़ें और अपनी राय दे.
श्रीमती पुष्पा तिवारी का ईमेल पता है ptdurg@gmail.com

प्रिय कवि विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता

कोई अधूरा पूरा नहीं होता

कोई अधूरा पूरा नहीं होता
और एक नया शुरू होकर
नया अधूरा छूट जाता
शुरू से इतने सारे
कि गिने जाने पर भी अधूरे छूट जाते

परंतु इस असमाप्त –
अधूरे से भरे जीवन को
पूरा माना जाए, अधूरा नहीं
कि जीवन को भरपूर जिया गया

इस भरपूर जीवन में
मृत्यु के ठीक पहले भी मैं
एक नई कविता शुरू कर सकता हूं
मृत्यु के बहुत पहले की कविता की तरह
जीवन की अपनी पहली कविता की तरह

किसी नए अधूरे को अंतिम न माना जाए ।