जीवन में गप्प है और गप्प में जीवन
Tuesday, March 23, 2010
Wednesday, March 10, 2010
कहानी
'पापा ने बिल्कुल ठीक किया तुम्हारे साथ। तुम हो ही ऐसी।'' क्रोध से तमतमाये चेहरे ने तर्जनी हिला हिलाकर कहा और फिर फूट फूटकर रो पड़ा। मैं स्तब्ध थी! रोते रोते भी शब्द अपनी सीमाएँ तोड़ते जा रहे थे। लेकिन मैं तो पत्थर सी बैठी केवल उसेक़ेवल उसे देख रही थीचलती जुबान, बिखरे बाल, चलते हाथ पाँव जो आल्मारी के तह लगे कपड़ों को उठा उठाकर ऑंगन में फेंक रहे थे बीच बीच में ऑंसुओं के साथ बह आती नाक को बाँह से पोंछती जा रही थी।
पूरी कहानी पढ़ें जल्दी ही...
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